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मानसरोवर--मुंशी प्रेमचंद जी


सुभागी मुंशी प्रेम चंद

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रामू को गाँव भर ने समझाया; पर वह अंत्येष्टि करने पर राजी न हुआ। कहा, जिस पिता ने मरते समय मेरा मुँह देखना स्वीकार न किया, वह मेरा न पिता है, न मैं उसका पुत्र हूँ।
लक्ष्मी ने दाह-क्रिया की। इन थोड़े से दिनों में सुभागी ने न जाने कैसे रुपये जमा कर लिये थे कि जब तेरही का सामान आने लगा तो गाँववालों की आँखें खुल गयीं। बरतन, कपड़े, घी, शक्कर, सभी सामान इफरात से जमा हो गये। रामू देख-देख जलता था। और सुभागी उसे जलाने के लिए सबको यह सामान दिखाती थी।
लक्ष्मी ने कहा- बेटी, घर देखकर खर्च करो। अब कोई कमानेवाला नहीं बैठा है, आप ही कुआँ खोदना और पानी पीना है।
सुभागी बोली- बाबूजी का काम तो धूम-धाम से ही होगा अम्माँ, चाहे घर रहे या जाय। बाबूजी फिर थोड़े ही आवेंगे। मैं भैया को दिखा देना चाहती हूँ कि अबला क्या कर सकती है। वह समझते होंगे इन दोनों के किये कुछ न होगा। उनका यह घमंड तोड़ दूँगी।
लक्ष्मी चुप हो रही। तेरही के दिन आठ गाँव के ब्राह्मणों का भोज हुआ। चारों तरफ वाह-वाही मच गयी।
पिछले पहर का समय था; लोग भोजन करके चले गये थे। लक्ष्मी थक कर सो गयी थी। केवल सुभागी बची हुई चीजें उठा-उठाकर रख रही थी कि ठाकुर सजनसिंह ने आकर कहा- अब तुम भी आराम करो बेटी ! सबेरे यह सब काम कर लेना।
सुभागी ने कहा- अभी थकी नहीं हूँ दादा। आपने जोड़ लिया कुल कितने रुपये उठे ?
सजनसिंह - वह पूछकर क्या करोगी बेटी ?
'कुछ नहीं यों ही पूछती थी।'
'कोई तीन सौ रुपये उठे होंगे।'
सुभागी ने सकुचाते हुए कहा- मैं इन रुपयों की देनदार हूँ।
'तुमसे तो मैं माँगता नहीं। महतो मेरे मित्र और भाई थे। उनके साथ कुछ मेरा भी तो धर्म है।'
'आपकी यही दया क्या कम है कि मेरे ऊपर इतना विश्वास किया, मुझे कौन 300/- देता ?'
सजनसिंह सोचने लगे। इस अबला की धर्म-बुद्धि का कहीं वारपार भी है या नहीं।

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